स्वामी विवेकानंद की दिलचस्प कहानी
दुनियां के हर हिस्से में ऐसे लोग हुए हैं, जो अपनी बोध-क्षमता यानी महसूस करने की शक्ति को पांच इंद्रियों से आगे ले
गए.... स्वामी विवेकानंद के बारे में एक दिलचस्प कहानी है....
वे
पहले योगी थे जो पश्चिम गए और वहां जा कर उन्होंने हलचल मचा दी। यह घटना सौ साल
पुरानी है । उन्होंने अपना पहला कदम शिकागो में रखा, और
फिर वहां से वे यूरोप गए।
जब वे जर्मनी पहुंचे, तो वे वहां एक ऐसे आदमी के घर मेहमान बने, जो उस समय
का मशहूर कवि और दार्शनिक था। रात के भोजन के बाद, वे दोनों
अध्ययन कक्ष में बैठ कर बातचीत कर रहे थे। मेज पर एक किताब रखी थी, जो थोड़ी पढ़ी हुई लग रही थी। वे दार्शनिक महाशय उस किताब की बहुत तारीफ कर
रहे थे, इसलिए स्वामी विवेकानंद बोले, “मुझे एक घंटे के लिए यह किताब दे दीजिए, जरा देखूं
तो इसमें क्या है।” उन महाशय को बुरा लगा और थोड़े आश्चर्य के
साथ उन्होंने पूछा, “क्या? एक घंटे के
लिए ! एक घंटे में आप क्या जान लेंगे? मैं यह किताब कई
हफ्तों से पढ़ रहा हूं, पर अभी तक किसी नतीजे पर नहीं पहुंच
पाया हूं। इतना ही नहीं, यह किताब जर्मन भाषा में है,
और आप जर्मन भाषा नहीं जानते,आप इसको पढ़ेंगे
कैसे?” विवेकानंद ने कहा, “मुझे बस एक
घंटे के लिए दे दीजिए; देखूं तो सही।” उन
महाशय ने मजाक समझ कर वह किताब उनको दे दी।
विवेकानंद ने किताब ले कर अपनी दोनों हथेलियों
के बीच दबा कर पकड़ ली और बस यूं ही एक घंटे तक बैठे रहे। फिर उन्होंने किताब लौटा
दी और कहा, “इस किताब में कुछ खास नहीं है।” उन महाशय ने सोचा कि यह तो आला दर्जे का अहंकार है। ये किताब खोल भी नहीं
रहे, यह उस भाषा में है जो इनको आती ही नहीं, और ये इस पूरी किताब के बारे में अपनी राय दे रहे हैं! वे महाशय बोले,
“बिलकुल बेकार की बात है।” विवेकानंद ने कहा,
“आप मुझसे किताब के बारे में कुछ भी पूछ लीजिए। बोलिए, आप कौन-से पेज के बारे में जानना चाहते हैं?” उन
महाशय ने जो भी पेज संख्या बताई, विवेकानंद ने उसी वक्त पूरे
पेज का एक-एक शब्द उनको सुना दिया। उन्होंने किताब खोली ही नहीं, बस, उसे दोनों हथेलियों के बीच पकड़े रहे। पर वे किसी
भी पेज को इसी तरह सुना देते। उन महाशय को बिलकुल यकीन नहीं हो पाया। उन्होंने कहा,
“यह क्या है? किताब खोले बिना और वह किताब भी
उस भाषा की जो आपको नहीं आती, आप यह सब कैसे बता सकते हैं?”
तब विवेकानंद ने कहा, “इसीलिए तो मैं
विवेकानंद हूं।” ‘विवेक’ का मतलब बोध
होता है। उनका असली नाम नरेन था। इसीलिए उनका नाम था ‘विवेकानंद’,
क्योंकि उनके पास ऐसी विशेष बोध-क्षमता थी।
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