अपनी कविता के उस पोटरी को खोला
आज अचानक मैं अपनी कविता के उस पोटरी को खोला
खोलते ही हर कविता चीख़-चीख़ के कहने लगी
क्यों मुझे तुम यहाँ कैद कर लिए हो
मुझे निकालो अब मेरा दम घुटता है
यहाँ तुम्हारी हर भावना, हर जज्बात यूँ ही पड़ा है
तुम्हारा हर दर्द यहाँ छुपा है
तुम्हारे तरकश से निकले शब्दों के उस तीर से
आज भी तेरा पन्ना सजा है
मुझे निकलो यहाँ से....मुझे फिर से सवारों फिर
से निखरों.....
मैंने कहा आज के इस दौर में तुम्हारी भाषा कोई
नहीं समझता
तुम जहां हो वही रहो,शब्द को शब्दों में ही
रहने दो
मैं बहुत मुश्किल से उसे समझाया
समझा के फिर से बंद कर दिया.....
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