भगवान फेसबुक नहीं पढ़ते

by - 4:28 AM

भगवान फेसबुक नहीं पढ़ते ...
पुरानी यादों से
रात बहुत बेचैन था। सत्ताईस साल पहले भी ऐसी ही एक रात थी, जब बेचैन था। वो रात भी उदास थी, ये रात भी उदास है। वो भी मई माह की पहली तारीख थी, आज भी मई माह की पहली तारीख है। वो दिन सोमवार था,आज भी सोमवार है। मैं चला जाता हूं पुरानी यादों में...
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अभी तीन दिन पहले ही की तो बात है जब अस्पताल से घर लाया था माँ को। अस्पताल से चलते वक्त कितने धीरे से और कितने अकेले में, डॉक्टर ने मेरे कंधे पर हाँथ रखते हुए कहा था "घर ले जाओ, सेवा करो, दुआ करो। डॉक्टर को कौन कहे कि, पिछले दस सालों से सेवा ही तो कर रहे हैं, दुआ ही तो कर रहे हैं। पिछले दस सालों से कभी घर तो कभी अस्पताल, टुकड़े टुकड़े ज़िन्दगी जी रही थी माँ।
अपनी बेचैनी के आलम में मैं आँगन में चला आया था। मध्य रात्रि का सन्नाटा खामोश था, आसमान से चाँद भी गायब था, बस गिनती के दो चार सितारे देख रहे थे आंगन में चुपचाप लेटी माँ को और माँ के सिरहाने बैठे पिताजी के हांथो की उँगलियों को, जो माँ के बालों में हल्के हल्के फिर रही थी। दूर लालटेन की रोशनी भी शायद सुबक रही थी और पिताजी भी।

मैंने पिताजी को कभी रोते नहीं देखा था और इतने प्यार से माँ के बाल सहलाते तो कभी नहीं। सच तो ये है की मैंने पिताजी को कभी माँ के करीब ही नहीं देखा था और इतने करीब की तो, कभी कल्पना भी नहीं की थी। 
मुझे उनके करीब नहीं जाना चाहिए था, फिर भी चला गया। करीब गया तो देखा माँ की आँखों से भी आंसू गिर रहे थे, दोनों चुप थे, दोनों रो रहे थे।

मुझे देख कर माँ ने बैठने का इशारा किया। वह कुछ बोलना चाहती थी, लेकिन मुंह के जख्म ने बोलने नहीं दिया। कुछ सांय सांय की आवाज़ जरूर निकली , लेकिन मैंने उसके होठो पर अपनी हथेली रख दिया।
चारपाई के सिरहाने पिताजी थे माँ के कदमो के पास मैं था। माँ ने हम दोनों को पास बुलाया और धीरे से मेरे हांथों में पिताजी का हाँथ पकड़ा दिया। 
अभी कल ही तो उसने मेरे भाइयों का हाँथ मेरे हाँथ में दिया था,आज पिताजी का, माँ को ये क्या हो गया था ? क्या पता था की मां उस मनहूस रात में यम की परछाई देख रही थी।
माँ बहुत समझदार थी, वो सब जानती थी, तभी तो उसने मुझे अपने छोटे भाइयों का पिता बना दिया और अब पिता को मेरा मित्र।

हम रात भर बैठे रहे। धीरे धीरे घर के और लोग भी आ गए। हमने फैसला किया चाहे जो हो, सुबह होते ही कल पुनः अस्पताल चला जायेगा।
सुबह हुई। हमने अस्पताल चलने के लिए गाडी और ड्राइवर सहेज दिया। छोटा भाई हनुमान चालीसा का जाप करने लगा। 
धीरे धीरे सूरज अपनी रोशनी बिखेरना लगा लेकिन माँ के आँखों की रोशनी मद्धम होने लगी। उसने इशारा किया , पूरे घर ने उस इशारे को नहीं समझा, लेकिन मैं जानता था, माँ आइना मांग रही थी। माँ को एक शेर बहुत पसंद था ,,,
" पसीना मौत का आया ज़रा आइना देना ,
हम ज़िंदगी की आखिरी तस्वीर देखेंगे "
माँ को मैंने आइना नहीं दिखाया और वो बिना अपनी सूरत देखे चल दी। लेकिन उसने तो अपनी तस्वीर मेरी आँखों में भी देखा था और पिताजी की आँखों में भी। 
घर के हर सदस्यों के आँखों में देखी थी उसनी अपनी तस्वीर, बस अपने सबसे लाडले की आँखे वो नहीं देख पायी, क्योकि वो उस समय वह फ़ौज में अपनी भारत माँ के रक्षा की सिखलाई जो कर रहा था, तो क्या माँ की आँख के कोरों के जो आखिरी आंसू बहे थे, वो इस बात की तड़प ही तो नहीं थी।
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माँ चुपके से चल दी। सारी तैयारी, सारी दवा, महामृत्युंजय जाप, धरा रह गया और माँ चल दी। सब रो रहे थे, मैं तो रो भी नहीं पाया। सब यही कहते थे तुम रोओगे तो भाइयों को कौन देखेगा, पिताजी को कौन संभालेगा, तुम घर के बड़े हो, अब तुम्हे ही सबको सम्भालना है।
आज सत्ताईस साल हो गए भगवान , मैं तब भी नहीं रोया था आज भी नहीं रोऊंगा। आप जब ये पोस्ट पढ़ रहे होंगे, तब मैं शायद गंगा माँ के किनारे, पंडित जी के सामने बैठा तर्पण श्राद्ध के मंत्र और गंगा मां की लहरों को याद कर रहा होऊंगा। पंडित जी के द्वारा बताये विधि विधान, कर्मकांड में,आटे जौ के पिंड में, जल में, काले तिल में, माँ के अक्श तलाश रहा होऊंगा, मैं रोऊंगा तब नहीं भगवान।
बस एक शिकायत है। जब माँ थी तब फेसबुक नहीं था। फेसबुक यानी चेहरों की किताब, फिर भी माँ हर चेहरा पढ़ लेती थी, वो मेरे चेहरे को भी पढ़ती थी कहती थी तुम्हे मेरी जगह लेना है, माँ बनना है।
भगवान ! अब मैं थक गया हूँ , कई बातों को लेकर टूट भी गया हूँ। मैं अब चुपके चुपके नहीं, जोर जोर से रोना चाहता हूँ लेकिन माँ की कसम में जकड़े अभी रो नहीं पा रहा हूँ। लेकिन अफ़सोस भगवान ये बात तुम भी तो माँ को बता नहीं पाओगे, क्योकि मैं जानता हूँ कि ,
भगवान फेसबुक नहीं पढ़ते बॉस ...

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