अपना मुकद्दर
अपने किये की सजा हम पाते हैं,
रोज जीते हैं रोज मर जाते हैं,
अपना गुनाह हमें स्वीकार नहीं
दूसरों पर उँगलियाँ हम उठाते हैं,
क़त्ल भी कर देते हैं हम
पर अपनी मौत से हम डर जाते हैं,
आगे बढ़ने के लिए छल कपट
भी कर लेते हैं हम
दुसरों के लाशों पर अपना महल बना लेते हैं,
अपना मुकद्दर हम बदलते नहीं
रोज जीते हैं रोज मर जाते हैं,
अपना गुनाह हमें स्वीकार नहीं
दूसरों पर उँगलियाँ हम उठाते हैं,
क़त्ल भी कर देते हैं हम
पर अपनी मौत से हम डर जाते हैं,
आगे बढ़ने के लिए छल कपट
भी कर लेते हैं हम
दुसरों के लाशों पर अपना महल बना लेते हैं,
अपना मुकद्दर हम बदलते नहीं
दुसरों को सिकन्दर हम कहते हैं !
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